विश्व-कला से कुछ नोट्स
सरहद के विषय में विचार करते हुए यूक्लिड (Euclid) का सर्वस्वीकृत कथन याद आता है। यूक्लिड के अनुसार, ''किसी की अत्यंतता या पराकाष्ठा अथवा चरम ही सरहद (सीमा) है।'' (Elements, BK I, Df 13) यदि हम किन्हीं दो - 'अ' और 'ब' इकाई के बीच सीमारेखा मान लें तो कुछ और रोचक बातें सामने आती हैं। लियोनार्डो (Leonardo) कहते हैं कि ''सरहद न तो 'अ' से संबंध रखती है न 'ब' से।'' बॉलजानो (Bolzano) यहीं कहते हैं कि ''सरहद या तो 'अ' से संबंधित होगी या 'ब' से।'' स्वारेज (Suarez) के मुताबिक, ''दो सीमाएँ हैं, एक का 'अ' से संबंध है और दूसरी का 'ब' से, और यह दोनों सीमाएँ बिना अतिव्यापन किए हुए अलग-अलग समंजित हैं।'' (There are two boundaries, one belonging to ¥ and one belonging to Õ and these two boundaries coincide spatially without overlapping mereologically) (Disputation 40, 1591) और स्वारेज का यह कथन भौतिक परिप्रेक्ष्य में लॉक (Locke) के सिद्धांत - 'एक वस्तु एक जगह' (one object to a place) का उल्लंघन करता है। इन्हीं सिद्धांतों से यह बात निकलती है कि 'आखिर, यह सरहद किसकी है?' और तब सिद्धांतों में व्यतिक्रम उत्पन्न किए जाते हैं। और उसी व्यतिक्रम के गर्भ से युद्ध का जन्म होता है।
सरहदें या तो खींची जाती हैं या उनका अतिव्यापन करके बढ़ाया जाता है और वैभव, क्षमता, प्रतिष्ठा में वृद्धि की जाती है या उसका प्रदर्शन किया जाता है। युद्ध चाहे किसी भी कारण से हो अथवा उसके पीछे जो भी कोई मंशा हो लेकिन नैतिक रूप से वह मानवता के खिलाफ ही होता है क्योंकि उससे होने वाला विनाश और उसका प्रभाव कल्याणकारी नहीं होता। युद्ध का सबसे विध्वंसक परिणाम मनोवैज्ञानिक स्तर पर होता है। चाहे वह युद्ध में बंदी बनाए गए लोगों के बाहर-भीतर की पीड़ा हो या पराजितों के दूरगामी जीवन पर दर्ज होने वाले अदृश्य किंतु उपस्थित मानसिक जख्म हों। अपनी जमीन से उखड़कर बेघर होने, शरणार्थी होने में जैसे मनुष्य कहीं का नहीं रह जाता। अकेलापन, शर्म, विच्छिन्नता, दुख, आशंका, संदेहास्पद होते जाने की कितनी ही मर्मांतक मनोदशाएँ उन व्यक्तियों को रोज झेलनी पड़ती हैं जिनका सब कुछ नष्ट हो चुका होता है, लूटा जा चुका होता है - निजता और उनकी अस्मिता तक। शारीरिक उत्पीड़न से अधिक कठिनतम यह मानसिक उत्पीड़न होता है जिसे पीढ़ियाँ-की-पीढ़ियाँ झेलती हैं।
विश्व-कला में युद्धों पर आधारित चित्रों का लंबा इतिहास है। उन चित्रों में समय और इतिहास तो दर्ज हुआ ही है, यह भी देखना उचित होगा कि कला में कलाकार अपने समय में मौजूद वैचारिक कला-सीमाओं को चुनौती दे रहे थे, ध्वस्त कर रहे थे या उनका अतिक्रमण किस तरह करके नए विचारों की सरहद में दाखिल होकर कला को विकास की ओर ले जा रहे थे - इस मूल्यांकन और अध्ययन के लिए विश्व-चित्रकला से कुछ नोट्स -

(Käthe Kollwitz, War series, 1923)
18वीं सदी के उत्तरार्ध में फ्रेंच राजशासन पद्धति ऐतिहासिक संक्रमण काल से गुजर रही थी। राजसत्ता जर्जर हो गई थी और फ्रेंच जनता रोमन गणतंत्र का आदर्श लिए हुए आगे बढ़ रही थी। तब होरेशिया के तीन बेटों ने अपनी तलवारें टकराकर यह प्रतिज्ञा की कि वे रोम की रक्षा अल्बा लोंगा (Alba Longa) राज्य से करेंगे। इस विषय को केंद्र में रखकर जाक दाविद् (Jacques Louis David, 1748-1825) ने 'होरेशिया की प्रतिज्ञा' (Oath of the Horatii) शीर्षक से 1784 में एक पेंटिंग बनाई। इस चित्र की बहुत प्रशंसा हुई और इसे नवशास्त्रीयतावाद (Neo-classicism) का प्रथम चित्र माना गया। राजा ने जनता को खुश करने के उद्देश्य से दाविद् की इस पेंटिंग को खरीदा। लेकिन दाविद् की सर्वाधिक प्रसिद्धि 'ब्रूटस के पुत्रों की मृत्यु का समाचार' (The Lictors Returning to Brutus of his sons, 1789) से हुई। यह चित्र दाविद् ने फ्रेंच राज्यक्रांति के समय बनाया था। क्रांतिकारी जनता और परंपरावादियों - दोनों के लिए रोमन साम्राज्य का इतिहास समान रूप से समादृत था। जनता को ब्रूटस के क्रांतिवाद ने आकर्षित किया था जबकि राजनिष्ठ लोगों को सीजर का साम्राज्यवाद प्रिय था। इस चित्र की ऐसी ख्याति फैली कि वोल्तेर के नाटक 'ब्रूटस' का मंचन करते हुए अभिनेता दाविद् के चित्र में चित्रित भंगिमाओं-मुद्राओं का अनुसरण करते थे। दाविद् ने युद्ध पर कई महत्वपूर्ण चित्र बनाए। उसी शृंखला में बहुत प्रसिद्ध चित्र 1801 में बनाया गया - 'नेपोलियन आल्पस पार कर रहा है' (Napeolean crossing Alps)। आस्ट्रिया के कब्जे में इटली का जो हिस्सा था, उसे वापस पाने के लिए नेपोलियन वापस आल्पस लौटा था। इस प्रसिद्ध चित्र के 5 प्रतिरूप अलग-अलग समय में बनाए गए। दाविद् ने विद्यार्थी जीवन में 'मिनर्वा की विजय' (Minerva's Conquest) नामक पेंटिंग बनाई थी। इस चित्र में रॉकॉको चित्र शैली की कुछ विशेषताएँ मिलती हैं। रॉकॉको शब्द की उत्पत्ति फ्रेंच शब्द रॉकॉय से हुई है, जिसका अर्थ है 'सीप'। सीप पर जिस तरह की गतिमान वक्र रेखाएँ होती हैं उसी तरह की रेखाओं को रॉकॉको चित्रशैली में प्रमुखता दी जाती थी। 18वीं सदी के प्रारंभ में फ्रांस में दरबारी कला में यह चित्रशैली जन्मी थी और इस पर तत्कालीन वास्तुकला का खासा प्रभाव था लेकिन साधारण जन-जीवन के यथार्थ चित्रण का नामोनिशान नहीं था।
नवशास्त्रीयतावाद के लिए दाविद् के चित्र 'होरेशिया की प्रतिज्ञा' का जो महत्व था, वही महत्व रोमांसवाद (Romanticism) के लिए 'मेदुसा का बेड़ा' (The Raft of Medusa, 1818-1819) का था। दाविद् के अनुयायी थिओडोर जेरिको (Theodore Gericault) ने इस चित्र के द्वारा नवशास्त्रीयतावाद की वैचारिक अवधारणा में बदलाव किया। रोमांसवादियों का मानना था कि सिर्फ बुद्धिनिष्ठ व नियमबद्ध होने से कला की चेतना नष्ट हो जाती है और उसका विकास नहीं हो पाता है। मेदुसा का बेड़ा रॉकफोर्ट (Rochefort) से चला था और सेनेगल के सेंट लुइस पोर्ट की ओर जा रहा था। फ्रांस और स्वीडन के बीच युद्ध खत्म हुआ था। (छोटे) युद्धपोत का मिशन पेरिस के शांति समझौते के तहत फ्रांस का सेनेगल में ब्रिटिशों की वापसी को स्वीकार करता था।
फ्रांस और ब्रिटेन के बीच मतभेद और वैमनस्य पुराने समय से चला आ रहा था। नेपोलियन के समय में 1810 में पेरिस पीस ट्रिएटी द्वारा फ्रांस ने ब्रिटेन को महाद्वीपीय व्यवस्था (Continental System) द्वारा आर्थिक क्षति पहुँचाई थी, जिसके परिणामस्वरूप 1815 में पर्सिया, रूस, ब्रिटेन और आस्ट्रिया की संयुक्त सेना ने नेपोलियन को वाटरलू के युद्ध में पराजित कर दिया था। मेदुसा जहाज के अधिकारियों को दोषी ठहराते हुए जेरिको ने उनकी भर्त्सना की थी। यह जहाज 1818 में अफ्रीका के किनारे दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और समुद्र में छोटे-छोटे बेड़े उतार कर जहाज पर सवार 100 से अधिक लोगों को छोड़ दिया गया था। उनमें सिर्फ 15 लोग जीवित बच सके बाकी सब या तो भूख से या पागल होकर मर गए थे। बचे हुए लोगों को किसी अन्य जहाज से देखा गया और किनारे लाया गया। इस अमानवीय व्यवहार के लिए जेरिको ने जहाज के अधिकारियों की निंदा की और प्रत्यक्ष घटना का चित्रण करने के लिए वह दुर्घटना से बचे हुए लोगों को स्वयं देखने गए। उन्होंने जहाज के खाती का नमूना बनवाया और अस्पताल में जाकर मृत्युशय्या पर पड़े लोगों के और लाशों के चित्र खींचे। इसी उद्देश्य से उन्होंने पागलखाने में जाकर वहाँ के पागल व्यक्तियों के कई रेखांकन किये। कहा जाता है कि जेरिको ने अध्ययन के लिए घर में भी लाशें रखी थीं जिसके लिए उनके पड़ोसियों ने उनके खिलाफ शिकायतें की थीं। इस मर्मांतक घटना का जेरिको के हृदय पर गहरा असर पड़ा था और एक कलाकार के संपूर्ण साहस और कौशल के साथ उन्होंने चित्र के माध्यम से अपना कलात्मक रोष प्रकट किया। इन चित्रों में अत्यंत गतिशील रेखाओं से मानव शरीर चित्रित किए गए हैं और रंगों का प्रयोग घटना के कारुण्यपूर्ण भाव-प्रदर्शन को लक्ष्य करके किया है। आड़ी-तिरछी रेखाओं के अद्भुत प्रयोग से पीड़ितों के चेहरे के हावभाव और संपूर्ण दशा बहुत दयनीय और सजीव बन पड़ी है। ब्रश के स्ट्रोक्स में नया जोश, रोष और विकलता साफ पहचानी जा सकती है।
जेरिको ने रोमांसवाद की शुरुआत तो की लेकिन उसमें अधिक संवेदना और चेतना डालकर सामर्थ्यशाली बनाने का काम ओजेन देलाक्रा (Eugene Delacroix, 1798-1863) ने किया। 11 अप्रैल 1822 को ऑटोमॅन सेना ने किओस में बसे लोगों पर हमला किया जो कि उस साल कई महीनों तक लगातार चलता रहा था। गर्मी की तपिश और आक्रमण की गोलाबारी ने दोहरे तरीके से वहाँ की जनता को तबाह कर दिया। इस हमले में लगभग 20 हजार से अधिक लोग मारे गए और लगभग 70 हजार से अधिक लोगों को युद्ध में बंदी बनाकर प्रताड़ित किया गया। देलाक्रा ने इस भीषण घटना को विषय बनाते हुए अपना बहुविख्यात चित्र 'किओस में नरसंहार' (The Massacre of Chios) बनाया। इस चित्र की वहाँ के दर्शकों और कला-समीक्षकों ने सिर्फ इसलिए निंदा की कि चित्र के विषय को समकालीन इतिहास से चुना गया था जबकि उस समय प्रचलित कला-विचारधारा के मुताबिक कला का विषय पौराणिक या आदर्शवादी ही हो सकता था। देलाक्रा के विषय-चयन के साहस, स्फोटक रंगांकन और वस्तु-विन्यास ने एक नए कला-विचार का सूत्रपात किया। देलाक्रा का कहना था कि चित्रकला की आत्मा रंग है इसलिए रंगों के गुणधर्म का सही और पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके रंगांकन द्वारा वस्तु को ठोस रूप प्रदान किया जाना चाहिए। रंगीन चित्र रंगों से साकार होता है, वाह्य रेखा से नहीं। इस मंतव्य का प्रभाव यह हुआ कि प्रभाववाद (Impressionism) के अनुयायी चित्रकारों ने वाह्य रेखा को चित्रकला से स्थगित कर दिया।

(Francisco Goya, Third of May, 1808, 1814)
फ्रान्सिस्को गोया (Francisco Goya, 1746-1828) स्पेन के तीसरे चार्ल्स की मृत्यु के बाद दरबारी चित्रकार नियुक्त किए गए थे। 1808 में फ्रांस ने स्पेन पर आक्रमण कर दिया और बेरहमी से निरपराध जनता का संहार किया। स्पेन के उत्तराधिकार का प्रश्न था और इसी वजह से 1870 में फ्रांस और पर्सिया के बीच निर्णायक युद्ध हुआ था जिसमें फ्रांस पराजित हो गया था। गोया ने 1808 के युद्ध में सामान्य-साधारण जनता की तबाही को अपनी पेंटिंग का विषय बनाया और कई चित्र शृंखलाएँ बनाईं। सत्तासीन वर्ग का भ्रष्टाचार और विलासिता अपने चरम पर थी। गोया के एक्वाटिंट्स 'युद्ध की भयानकता' (Horrors of War) तथा 'युद्ध के दुष्परिणाम' (Disaster of War) में गोया ने संपूर्ण संवेदना के साथ जनता के दारुण्य और पीड़ा को चित्रित किया है, वहीं अपना विद्रोही और आलोचनात्मक हस्तक्षेप भी प्रदर्शित किया है। आलोचनात्मक और स्पष्टवादी निंदा भरे चित्र कला के इतिहास में सर्वप्रथम गोया ने ही बनाए हैं। गोया ने राजा और धनिक वर्ग के जो व्यक्ति चित्र बनाए हैं उनमें से व्यक्तियों की व्यभिचारी वृत्ति और मूर्खता की ओर साफ संकेत उपलब्ध हैं। राजा चतुर्थ चार्ल्स के परिवार का सामूहिक व्यक्तिचित्र इस बात का प्रमाण है। इस चित्र में राजसत्ता को खुश करने का कोई प्रयत्न नहीं है बल्कि बदसूरत रानी और व्यभिचारी राजसदस्यों के चेहरों की भंगिमाओं को विद्रूप करके गोया ने उन्हें अनंत समय तक के लिए निंदा का पात्र बना दिया है। गोया के युद्ध विषयक चित्रों में 'दो मई' और 'तीन मई' का विशेष स्थान है। इन चित्रों में फ्रेंच सैनिक निर्दयता से स्पेनिश जनता की हत्या करते हुए दर्शाए गए हैं। जनता के चेहरों पर आसन्न मृत्यु के भय में खामोशी और अवाक का चीत्कार पूरे कैनवस से बाहर भी सुना जा सकता है। 'मैंने यह देखा' (This I have seen) चित्र-शृंखला युद्ध के हृदय-विदारक परिणामों का अविस्मरणीय दस्तावेज है। इन चित्रों से पहले कलाकार युद्ध के चित्र में वीरता और धैर्य की प्रशंसा किया करते थे, लेकिन गोया ने आक्रामकों की हृदयहीनता और निर्दयता की निंदा करके जनता की दयनीय दशा की ओर कला-इतिहास की संवेदना को मोड़ दिया। इसीलिए गोया के चित्रों में आत्मीयता और नव-विचार की स्फूर्ति है। जीवन-मरण के अंतिम क्षणों की मनोदशा का ऐसा प्रभावी यथार्थ चित्रण करने में गोया का कोई सानी नहीं है। 'युद्ध के दुष्परिणाम' शृंखला को तीन विषयों पर केंद्रित मानकर बाँटा जा सकता है - युद्ध, भुखमरी और अकाल, राजनीतिक और सांस्कृतिक पतन।
घनवाद के जनक ग्युस्ताव कुर्बे (Gustave Courbet, 1819-1877) को युद्ध के घातक परिणाम झेलने पड़े थे। फ्रांस और जर्मनी के युद्ध के बाद फ्रेंच गणतंत्र का पतन हो गया था और कुर्बे की राष्ट्र के प्रति की गई सेवाओं और त्याग के बदले अभियोग और बार-बार कारावास की सजा झेलनी पड़ी थी। उनकी सारी संपत्ति और कलाकृतियाँ जब्त कर ली गई थीं। ऐसी विपत्ति में भी अंत तक कुर्बे ने चित्र बनाए हैं। उनके चित्रों में युद्ध के दौरान की मनःस्थिति के सूक्ष्म तत्व तलाशे जा सकते हैं।

(Pablo Picasso, Guernica, 1937)
घनवादी चित्रकार पाब्लो पिकासो (Pablo Ruiz Picasso, 1881-1973) द्वारा 1937 में बनाए गए विश्वविख्यात चित्र 'ग्वेर्निका' (Guernica) की भला किसको याद न होगी। चित्र का विषय था - जर्मन तानाशाही आक्रमण द्वारा स्पेन के सीमावर्ती गाँव ग्वेर्निका का विनाश। 26 अप्रैल 1937 को स्पैनिस सिविल वार के दौरान बमबारी करके ग्वेर्निका को तहस-नहस कर दिया गया था। पिकासो ने इस चित्र के प्रतीकात्मक महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा था - 'यहाँ बैल का चित्रण तानाशाही के प्रतीक रूप में नहीं किया गया है बल्कि वह पाशविक अत्याचार और अन्याय का प्रतीक है, घोड़ा जनता का प्रतीक है।' यह चित्र युद्ध की विनाशकारी प्रवृत्ति और समाज में व्यक्ति और मुख्यतः मासूम नागरिकों के आत्म के विनाश का दस्तावेजी रूपक का दर्जा प्राप्त कर चुका है। पिकासो ने यह चित्र पेरिस में बनाया था और आधुनिक कला संग्रहालय में इस शर्त के साथ रखा था कि उसको स्पेन तभी भेजा जाए जब वहाँ गृहयुद्ध समाप्त हो जाए और लोकतंत्र स्थापित हो जाए। कहा जाता है कि जब चित्र एक कलादीर्घा में प्रदर्शित था, वहाँ तानाशाह के सैनिक आ गए। सैनिकों ने पिकासो से पूछा - 'यह चित्र किसने बनाया है?' पिकासो ने हिकारत से, बिना डरे कहा - 'आपने?'
अभिव्यंजनावादी काल के उत्तरवाद (Post-Empressionism) में ऑटो डिक्स (Otto Dix, 1891-1969) ने प्रथम विश्वयुद्ध में हुए भयंकर नरसंहार को अपनी आँखों से देखा था। इससे उनकी कल्पना शक्ति आजीवन असर में रही और उनको हर जगह दुख, आतंक और तबाही के दृश्य दिखाई देते थे। लाशों, कंकालों और खून-कीचड़ से लथपथ युद्धक्षेत्र की खाइयों के एंग्रेविन्ग्ज को उन्होंने 'युद्ध' (1924) शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित किया।
विश्वयुद्ध के बाद की मानसिक अवस्था का सबसे प्रभावी चित्रण माक्स बेकमन (Max Beckmann, 1884-1950) ने किया है।

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प्रथम विश्वयुद्ध के बाद निराशा, अवसाद और पाश्चात्य सभ्यता की विनाशक परिस्थिति ने ही कला-इतिहास में दादावाद व अतियथार्थवाद (Surrealism) को जन्म दिया। इस दौर के चित्रों का मनोविज्ञान युद्ध के विघटनकारी और अराजक वृत्तियों से मेल खाता है। शरणार्थी चित्रकार साल्वाडोर डाली (Salvador Dali, 1904) के बनाए चित्रों में यथार्थ के पीछे छुपा हुआ घृणास्पद सत्य उद्घाटित हुआ। डाली ने खून, हत्या व सड़न को चित्रित करके आकारों का सर्वथा नया प्रारूप रच दिया। 'जलता हुआ जिराफ' (1935), 'गृहयुद्ध की पूर्व-सूचना' (1936) और 'दृष्टि सातत्य' (Presistence of Vision) जैसे कई चित्रों में उनकी असाधारण कल्पनाशक्ति और कला कौशल तो मिलता ही है, उस समय को समझने का भी सूत्र प्राप्त होता है। साल्वाडोर डाली की संपूर्ण कला विश्वयुद्ध के परिणामों का कला में प्रत्यक्ष प्रकटीकरण है।
हेनरी रूसो (Henri Rousseau, 1844-1910) ने भी 'युद्ध' शीर्षक से महत्वपूर्ण पेंटिंग बनाई थी। लेकिन यह पेंटिंग विचलित नहीं कर पाती।
मेक्सिकन कला के जरूरी हस्ताक्षर डाविड आल्फारो सिकेरोस (1898) के प्रसिद्ध चित्र 'चीख की प्रतिध्वनि' (Echo of a scream) में बमबारी के दौरान ध्वस्त नगर के मलबे में एक असहाय, अनाथ बच्चे को विलाप करते हुए चित्रित करके युद्ध की विभीषिका को बहुत हृदयविदारक बना दिया गया है।
इटैलियन कला में जो महत्व माइकल एंजेलो को प्राप्त है, मेक्सिकन कला में होसे क्लेमेंट आरोस्को (1883-1949) ने वही स्थान प्राप्त किया है। 1913 से 1917 तक उन्होंने क्रांति के जो कच्चे रेखांकन किए थे उससे उन्होंने 'मेक्सिकन क्रांति' (Mexico in revolution)) शीर्षक से चित्र-शृंखला तैयार की थी। युद्ध की विभीषिका के मैक्सिको शहर तक पहुँचने से पहले वे वहाँ की बदनाम बस्ती के निरीक्षक थे और उन्होंने 'आँसुओं का घर' (House of Tears) शीर्षक से उस इलाके की स्त्रियों के जीवन की दयनीय दुखभरी कहानी जलरंगों के माध्यम से चित्रित की थी। अमेरिका के न्यूयार्क शहर में सामाजिक अनुसंधान विद्यालय (School of Social Research) में उन्होंने विशाल भित्ति चित्र बनाया था। शीर्षक और विषय था - 'नए विश्व में संस्कृति की वीरगाथा' (Epic of Culture of the New World)। इस चित्र में व्यंग्य और उपहास का सार्थक उपयोग देखने को मिलता है। पैगंबरों की वाणी को अनसुना करते हुए लोग एक-दूसरे के प्रति दुर्व्यवहार व अत्याचार कर रहे हैं। एक जगह पर ईसा को क्रूस को कुल्हाड़ी से काटते हुए दर्शाया गया है। मेक्सिकन कला-देवता को देश छोड़कर जाते हुए प्रदर्शित किया गया है और वर्तमान सभ्यता के जन्मदाता बौद्धिकों को कंकाल की तरह निरूपित किया गया है जो व्यक्तिवादी अराजक शिक्षा के द्वारा फिर कंकालों का निर्माण कर रहे हैं। 1940 में आधुनिक कला संग्रहालय की बाहरी दीवार पर उन्होंने जो चित्रांकन किया, उसको युद्ध पर आधारित कला की एक अप्रतिम रचना का दर्जा दिया जा सकता है। मेक्सिकन सरकार ने आरोस्को को मृत्यु के पश्चात राष्ट्र के अमर पुरुषों में शामिल कर राष्ट्रीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया।
ऐसे अनेक चित्रों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन्होंने विश्व के अनेक युद्धों और उनकी मनःस्थितियों और उनके भीषण परिणामों को अत्यंत संवेदना के साथ सँजोया है। अभी पिछले ही दिनों इराक पर अमेरिकी हमले की निंदा करते हुए दुनिया के अनेक चित्रकारों ने पेंटिंग बनाई थी। बंदीगृह में निर्वस्त्र बंधकों के कोड़े-खाए जिस्मों की रक्तिम लकीरें और अमेरिकी बर्बर सेना के धधकते घृणास्पद सैनिकों की तस्वीर जनता के क्रोध में दर्ज हो चुकी है।

(Gulam Mohammad Sheikh)
हमारे देश भारत में अंग्रेजों से मुक्ति के प्रयास में बहुत कम चित्रों का सृजन मिलता है। लेकिन आजादी के साथ भारत-पाकिस्तान विभाजन की दुर्घट छाया की विडंबना से कई भारतीय कलाकारों की कला को एक पहचान मिली है। ऐसे कलाकारों में कृष्ण खन्ना, सतीश गुजराल, ग़ुलाम मोहम्मद शेख, नीलिमा शेख, और ऐसे कई महत्वपूर्ण कलाकारों के नाम लिए जा सकते हैं। भारत-बांग्लादेश विभाजन की मारक स्मृतियों से बंगाल के कई चित्रकारों का सामना बना हुआ है। जोगेन चौधरी और उनसे पहले चित्तप्रसाद की कला में बंगाल विभाजन और बंगाल के अकाल की हृदय विदारक छवियाँ गहरे तक पैठी हुई हैं।

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कृष्ण खन्ना के अनेक चित्रों में विभाजन के बाद की आशंका, हड़बड़ी, डर, सब कुछ समेट चलने की हद दर्जे की उत्कंठा और असहायता की बेचैनी दर्ज है। हिंसा और आत्मसंशय के अनेक रूपाकार कृष्ण खन्ना के चित्रों में उस कठिन समय को साक्षात उपस्थित कर देते हैं। सतीश गुजराल का एक ब्लैक एंड व्हाइट चित्र है जिसमें आधा चेहरा ढके कुछ स्त्रियाँ जैसे मर्सिया पढ़ रही हैं। इस चित्र में दुख और बेचैनी का अजीब श्वेत-श्याम रूप है। बेरंग और बदरंग।
चित्तप्रसाद ने भगत सिंह की शहादत, कश्मीर के जन-आंदोलन, तेलंगाना के किसान विद्रोह और बंगाल के अकाल की प्रभावी छवियाँ रचकर सार्थक कला का एक प्रस्थान तय कर दिया है। जैनुल आबदीन के चित्रों को इसी पृष्ठभूमि में याद किया जा सकता है।
1971 में बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम के दिनों में कृष्ण खन्ना के बनाए 'खेल' शीर्षक चित्रों को भुलाया नहीं जा सकता। इस चित्र में कुछ ताकतवर लोग बैठे हुए खेल रहे हैं और नीचे नर-कंकाल बिखरे हुए प्रदर्शित हैं।
के.जी. सुब्रमण्यन छात्र जीवन में मार्क्स और गांधी के विचारों से प्रभावित होकर 'अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन' से सक्रिय राजनीति में आए थे। 1943 में के.जी. जब जेल गए तो राजनीति से जुड़े लोगों की प्रतिबद्धता और सोच ने उन्हें निराश कर दिया। यह मोहभंग के.जी. सुब्रमण्यन की पेंटिंग में दर्ज आकारों में साफ पहचाना जा सकता है।
सोमनाथ होर का जन्म 1921 में चटगाँव (अब बांग्लादेश) में हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने चटगाँव पर बमबारी की थी। युद्ध के ये जख्म और बंगाल के अकाल की पीड़ा सोमनाथ होर के रेखाओं और रंगों में दर्ज होते रहे। सोमनाथ होर स्वयं कहते थे - 'मैं तस्वीरें नहीं बनाता हूँ। मैं जख्म बनाता हूँ।'
गुजरात के एक बोहरा मुस्लिम परिवार में 1925 में जन्मे तैयब मेहता विभाजन की हिंसा को चित्रों में दर्ज करते रहे। उनके विखंडित व्यक्तित्वों के रूपाकार विरूप का अनूठा सौंदर्यशास्त्र प्रस्तुत करते हैं।
नीलिमा शेख की एक पेंटिंग प्रदर्शनी का शीर्षक ही था - 'हर रात कश्मीर को अपने सपनों में रखो' (Each night put Kashmir in your dreams)।
गणेश पाइन के चित्रों में अंधकार और आशंका की भयावह छवियाँ बंगाल के विभाजन और अकाल और अद्भुत कल्पनाजनित खोहों में हमें ले जाने में समर्थ हैं।
रामेश्वर बरूटा की कला में हिंसा और आतंक की न सिर्फ छवियाँ बल्कि हृदयद्रावक चीखें तक दर्ज हुई हैं।
अर्पिता सिंह ने मौजूदा समय में युद्ध के नए तरीकों को केंद्र में रखकर कई पेंटिंग्स बनाई हैं और बाजारवादी सामंतशाही ताकतों की निंदा की है।
अंजलि इला मेनन की 'युद्ध' की मर्मांतक पीड़ा पर केंद्रित एक पेंटिंग है जिसमें एक मृत माँ के स्तन उघड़े हुए हैं, आस-पास मृत्यु और लाशों का अंबार है। माँ के पास एक भूखा-प्यासा बच्चा बैठा हुआ है। भारतीय कला-इतिहास में यह चित्र एक धरोहर है। मृत्यु की शांति के बीच जीवन का यह रूप बहुत कष्टदायी है।
भारतीय कला में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जिनमें बाहरी और भीतरी युद्ध के दृश्य पूरी विडंबना के साथ उकेरे गए हैं।

(Eugène_Delacroix_-_Le_Massacre_de_Scio)
युद्धों और सरहदों ने अपने प्रभाव के विस्तार में सभ्यता, संस्कृति और मानवता को असहनीय पीड़ा पहुँचाई है। शायद इसीलिए पिटिरिम सोरोकिन (Pitrim Sorokin) ने 'क्रांति का समाजशास्त्र' (The Sociology of Revolution) में प्रस्तावना की थी कि 'संघर्षों तथा युद्धों का अंत करने के लिए संसार में एक रचनात्मक परार्थवादी व्यवस्था की स्थापना परम आवश्यक है। केवल आर्थिक या राजनीतिक के अनुकूल अहंवादी अथवा स्वार्थी मनोभावों को समाप्त करके परार्थवाद को उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसलिए परार्थवादी आंदोलन को संपूर्ण विश्व में फैलाना होगा। इससे अनेक क्षेत्रों में हृदय की विशालता और विचारों की वह उदारता प्राप्त हो सकती है जिसके अभाव में विश्व-बंधुत्व या विश्व-शांति की कल्पना एक निरर्थक सपना ही बना रहेगा।'